बुधवार, 24 अप्रैल 2019

सौंदर्य दर्शन

अधर देख मन अधर में झूले,वो पारस जो उन को छू ले।
स्पर्श रसीले रदपुट करने ,मधुकर अनंगी व्यग्र हो डोले।
उन्नत कुच सदृश  पर्वत, असीम  क्षीर सागर सत सत।
कुचाग्र उर्ध पुष्ट आकर्षक, कृष्ण द्राक्षा कामरस वर्षक।।
भार हिमाचल सा धारण कर, कंचुकी धन्य  हो जाती नमन।

जो कटि छुए कटि जाए वो उंगली।मुख पानी आए जैसे इमली ।
कस्तूरी घनी गहरी अन्धकूप,पर लगती पूस माह की धूप।
कुंतल घन घनघोर श्याम ,द्युति लोप हुई तमसमय याम।
लोचन विशाल अप्सरा उर्वशी, भृकुटी तान उद्विग्न प्राण।
श्वेत रद पंक्ति शोभायमान , सुधाकर अनेक विराजमान!
कपोल कोमल यौवन उद्गगारक , ह्रदय अभीप्सा चितवन अति मारक।
श्रोणि मलय दृग शीतल कारक, उर मनमथाग्नि अति दाहक।
जघन सुघड स्तम्भ व्योम,उद्दीपन पुरूषार्थ होम।
चक्षु पुतलिका कृष्ण विविर, अस्तित्व लुप्त इन मे गिर गिर।
अशेष चेतना ओत प्रोत , खिंच चली वहीं आकर्षण स्रोत।
तन, मन की सुध बुध हारक, वही श्रजन वही संघारक।
पलक झपक आमंत्रण देती, मन विलय कर प्राणो का निलय कर देती।
कंचन तन है अशेष सृष्टि, आप्लवित प्राण स्पंदन अमिय वृष्टि।



                                 खन्ड २
कर्ण कुन्डल है परिक्रमा पथ धरा का, और चित मेरा 
धरा है ।
द्रुत द्वैत गति अविराम है यह,स्थिर द्रग निष्काम है ।
है वहीं फिर , था जहां वह,मापने अपरिमित चला है।
नथ मनमथ मन मथ देती,कष्ट विरह का हर लेती ।
टिकली शोणित ललाट शोभित, उदित रवि सी
ऊर्जा भर देती।
श्वेत माणिक कंठमाल,हो दीप्त ह्रदय को दिनकर कर देती।
बाजूबंध पाश भुजबल का, हो शूरवीर भी भयभीत विकल।
कंकड खनन खनन मन भावन, स्वर सप्त नतमस्त कर्णप्रिय पावन।
मुद्रिका मन मुदित कारक , धन्य अनामिका धरित्री चित हारक।
कटिबंध मध्यांक पर विराजमान, है परिसीमा इस गगन की।
पग प्रसून है मंगलकारी, कर स्पर्श धन्य रेणुका होतीधरनि की।