छंद- बिहारी छंद
रस- करुण
प्रसंग- लक्ष्मण जी को शक्ति बांण लगने पर भगवान राम का शोक
(१) लक्ष्मण उर शक्ति सर लगा, राम मनुहार।
व्याकुल कपि रीछ भय जगा, प्राण पर भार।।
मुंदे नयन राम तृण हो, देख न पाये।
रहे बिलख राम विकल हो, मुख मुरझाए।।
अर्थ- लक्ष्मण जी के ह्रदय में शक्ति बांण लगने पर उन को चेतन करने के लिए विनती करते है।उन के प्राणों पर संकट देख कर रीछ तथा वानर व्याकुल हो भयभीत हो जाते हैं।
भगवान राम द्वारा लक्ष्मण जी की यह दशा देखी नहीं जा रही। उनकी आंखें बंद है तथा वह तिनके के समान टूट रहे हैं। राम व्याकुल होकर बिलख रहे हैं तथा उनका सुंदर मुख मुरझा गया है।
(२) नेत्र सर सलिल बहत सतत, राम सुधहीन।
हे ईश्वर कर दान दया, प्राण मत छीन ।।
प्राण निज हर ले अखिल हो, जीवन लघु का।
हाय अनुज अशेष मन हो, गौरव रघु का।।
अर्थ- राम के नेत्र सरोवर से जल निरन्तर बह रहा है तथा वो सुध खो बैठे है।
हे ईश्वर दया का दान करिए,प्राण मत छीनिए ऐसी प्रार्थना वह ईश्वर से करते है।
मेरे प्राण ले लीजिए पर छोटे भाई के जीवन का क्षय न हो।हाय कनिष्ठ (छोटा भाई) तुम मेरा सम्पूर्ण मन हो तथा रघुकुल के गौरव हो।
(३) डोल महि पुरुषार्थ पर जिस, मूर्छित अथाह।
रावणसुत आनन्दित मय, ह्रदय जय चाह।।
सखा सुख दुख के मम अनुज, साथ न छोडो।
अग्रज अनुनय भातृ लखन, लोचन खोलो।।
अर्थ- जिस के पुरुषार्थ से धरती डोल जाती है वह गहरी मूर्क्षा में है। रावण पुत्र मेघनाद अत्यंत प्रसन्न हैं। उस के ह्रदय में विजय की अभिलाषा है।
सदैव सुख दुख के साथी, मेरे छोटे भाई साथ मत छोड़ो। अपने बड़े भाई की विनती सुनो और अपनी आंखों को खोलो।
(४)। वनवास मुझे था करना, कंटक पथ पर।
छाया बन वह साथ रहा, चपल न क्षण भर।।
निर्वासित स्व सिया व अनुज, पावत दुख ही।
सेवा सहज भाव रखते, चाह न सुख की।
अर्थ- कांटों से भरे हुए पथ पर चलते हुए मुझे वन में वास करना था। अपने भाई की रक्षा करते हुए वह(लक्ष्मण) छाया की तरह साथ में रहा।
सीता व लखन ने खुद को निर्वासित करके सिर्फ दुख ही पाया। वह सेवा का सहज भाव रखते हैं तथा उनमें अपने सुख की इच्छा नही है।
(५) विश्वामित्र के गौरव हो, तुम कब हारे।
संघार किये दानव के, मुनि जन तारे।।
वन में खर दूषण रिपु थें, विकट विकराल।।
मारे वह हमने मिलकर, दुष्ट रिपु काल।।
अर्थ- ऋषि विश्वामित्र जी के तुम(लखन) गौरव हो। तुम अपराजेय हो। दानवों का दमन करते हुए तुम ने ऋषियों-मुनियों का उद्धार किया है।
वन में खर तथा दूषण कठिन तथा भयानक शत्रु थे।हम ने मिल कर उन दुष्ट शत्रुओं का संघार उन का काल बन कर किया।
(६) कष्ट अवनिका सूर्पनखा दंडित दमनित।
टिड्डी दल बने यह अमित्र धावत गमनित।
निद्रा पल भर ना ग्रसती चेतन पल हर,
निश्चेत हुआ क्षण भर में, उर पर अहि सर।
अर्थ- माता सीता के लिए कष्ट सूर्पनखा को दंडित कर पाठ पढ़ाया था। उस के बाद हुए युद्ध में शत्रुओं की सेना टिड्डियों के दल जैसे छाए थें वो उल्टा भाग खड़े हुए थे ।
जो कभी एक पल के लिए भी नहीं सोता था तथा हर पल चेतन रहता था वह ह्रदय स्थल पर सर्प बांण लगने पर एक क्षण में अचेत हो गया।
(७) हूं मैं अपराधी मम प्रिय मां,अमिय सुमित्रा
न कह प्रतिवचन मैं सकता नीरव भी ना।
हाय प्रिय सखा प्राण रहे मम् उर स्पंदन,
रहे बिलख राम शिशु बने मार्मिक क्रंदन।
अर्थ- मैं अपनीअमृत रूपी प्रिय मां सुमित्रा का अपराधी हूं। जब वो मुझ से लक्ष्मण के बारे में पूछेंगी तो न तो मैं उन को उत्तर दे पाऊंगा और ना ही चुप रह पाउंगा।
भगवान राम कहते हैं कि मेरे ह्रदय के स्पंदन, मेरे प्रिय तुम्हारे प्राण सुरक्षित रहे यह कह कर वह शिशु की भांति बिलख रहे हैं। उन का क्रंदन(रोना) बहुत मार्मिक है।
(८) आनन अमिय वास मम हिय अवरज सहचर,
ईश विषधर माहुर ग्रसित मानव बन कर।
कपोल लवणीय नयनजल, जनु तट नदीश।
व्यथित व करुणित करुणजलधि, चिंतित कपीश।
अर्थ - हे अनुज मेरे सखा, तुम्हारी मुखाकृति मेरे ह्रदय में अमृत समान है। जो समस्त विषधरों (सर्प) के ईश्वर है वह मानव रूप में स्वयं विषग्रस्त है।
भगवान राम के गाल नमकीन आंसुओं से गीले हैं और ऐसा लग रहा है कि तो सागर के तट हों।करुणा के सागर स्वयं करुणित व व्यथित हैं। पवनसुत यह देख कर चिंतित हैं।